
बॅट गये सभी सनातन के लोग, जब दुर्बुद्धि से दुःख द्वंदों में|
अपना अपना उत्कर्ष जता कर, रख दिया राम को वितण्डों में ||
हो गए छुब्ध दुर्दशा देख, जब राम यहां के लोगों का|
जो करने लगे प्रहार स्वयं ही, स्वयं ही अपने बंधू का ||
स्वयं के शत्रु बन गए स्वयं ही, खो गया विचार जब वेदों का|
ब्रह्म तत्व का ज्ञान भुला कर, तत्ववेक्ता बन गए अज्ञानीसा||
बॅट गये विविध पंथों में जब, ज्ञानी विज्ञानी सनातनियों का|
जैन बुध बन गए स्वयं ही, घातक वेद पुराणों का।|
राम के अंतःपुर में ही जब, धड़क उठी ज्वाला अपनों ही का।
क्षुब्ध-बिक्षुब्ध हो गए राम फिर, दुर्दशा देख सनातनियों का।|
भरसक प्रयास किया राम ने, संगठित समाज को करने का|
किया प्रगट ज्ञानी विज्ञानी, शंकराचार्य से विद्वानों का||
काल खंड के कलरब में, फिर चला प्रचार कुछ संतों का|
राम मुदित मन होकर फिर, आ गए अयोध्या विचार कर रहने का||
किन्तु चला ना अधिक समय तक, संतुलन विचार सनातनियों का|
फिर से कलह उत्पन्न हो गया, राज समाज के ब्यभिचारों का||
पड़ा प्रभाव जब आर्यावर्त में, राज समाज के दुष्कर्मों का|
टूट टूट कर बिखर गया फिर, संगठन समाज के उत्कर्षों का||
आगये आतताइयों के समूह फिर, आर्यावर्त के पवन प्रांगण में|
नष्ट-विनष्ट फिर कर डाले वे, वेद पुराण सद्दग्रंथों का||
लगे लूटने विविध प्रकार से, अस्मिता हमारी माँ बहनों का|
बहु बेटियां ग्रास बन गई, क्रूर यवन के हाथों का||
त्राहि त्राहि मच गया यहां पर, है तांडव मचा अत्याचारों का|
कोई नहीं बचाने वाला, रह गया नारियों के अस्मिता का||
अब तक सदियों से प्रभु राम ने, देख दुष्कर्म हम लोगों का|
छोड़ दिया अस्सहाय सभी क़ो, ये सब कुछ ही सेहने क़ो||
किन्तु दिन दयालु प्रभु श्री राम ने, पुनः हमे है प्राश्रय दिया|
कर के विचार दयार्द्र भाव से, फिर से अयोध्या में आने का||
यह कैसा दुर्भाग्य आज फिर, अहो यहाँ अज्ञान तिमिर में|
बटकर बैठे है हम सब फिर, पड़कर मोहाछन्न अज्ञान में||
संत असंतसे बने हुए है, विद्वान मुर्ख सी बाते करते|
ब्रह्म क़ो जो है समझ ना पाया, ब्रह्मवेक्ता अपने क़ो कहते ||
तत्वज्ञान का ज्ञान नहीं है, तत्ववेक्ता बनकर हैं बैठे|
अपना ही उत्कर्ष सिद्धि में, मोहाछन्न होकर हैं बैठे||
ग्रह नक्षत्र और तिथि अयन का, भला विचार क्या राम हैं करते|
संवत्सर के कालखंड क़ो, राम भला क्या कभी देखते||
अपने जन मानस के प्रति तों, सदा उदार बने हैं रहते|
नहीं प्रयोजन अन्य उन्हें कुछ, दुःखदाह मिटाने को वे तत्पर रहते ||
राजनीती की होड़ मची है, क्या सत्ता क्या संतों में|
अपने अपने ही स्वभावसे, सब जड़े हुए हैं अवचेतन में||
ऐ परमहंस अज्ञान अंध सब, अपने अंतर की दृष्टि खोलो|
देखो राम पधार रहे है, पुनः अयोध्या के प्रांगण में||
जागो मेरे बंधू बाँधब, हो तुम सपूत सनातन के|
मातृभूमि माँ भारत माता की, आँखें अनुरंजित है अश्रू बिंदु से||
आदि पिता हम सब के ही तो राम ब्रह्म अनामय अनंत हैं |
माता सीता क्षमाशील हो, है देख रही दृग अश्रु बिंदु से||
सादर सुद्ध विचार से अब तो, जो खंड बचा है भारत माता का |
साकेतपुरी ही समझ लो इसको, इस अबषिश्ट भारत भूमि को।|
आने दो प्रभु श्री राम चंद्र को, स्वागत में सब तत्पर हो जाओ।
हृदय अयोध्या समझ लो अपना, सीता राम मय सब हो जाओ।|
सीता राम मय सब जग्ग जानी|
करउं प्रणाम जोरि जुगपाण।|
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